मंगलवार, 16 मार्च 2010

कबीर

माला फेरत जुग गया फिरा ना मन का फेर
कर का मनका छोड़ दे मन का मन का फेर
मन का मनका फेर ध्रुव ने फेरी माला
धरे चतुरभुज रूप मिला हरि मुरली वाला
कहते दास कबीर माला प्रलाद ने फेरी
धर नरसिंह का रूप बचाया अपना चेरो

आया है किस काम को किया कौन सा काम
भूल गए भगवान को कमा रहे धनधाम
कमा रहे धनधाम रोज उठ करत लबारी
झूठ कपट कर जोड़ बने तुम माया धारी
कहते दास कबीर साहब की सुरत बिसारी
मालिक के दरबार मिलै तुमको दुख भारी

चलती चाकी देखि के दिया कबीरा रोय
दो पाटन के बीच में साबित बचा न कोय
साबित बचा न कोय लंका को रावण पीसो
जिसके थे दस शीश पीस डाले भुज बीसो
कहिते दास कबीर बचो न कोई तपधारी
जिन्दा बचे ना कोय पीस डाले संसारी

कबिरा खड़ा बाजार में सबकी मांगे खैर
ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर
ना काहू से बैर ज्ञान की अलख जगावे
भूला भटका जो होय राह ताही बतलावे
बीच सड़क के मांहि झूठ को फोड़े भंडा
बिन पैसे बिन दाम ज्ञान का मारै डंडा

कबीर के दोहे

चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह ।
जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह॥ 

माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय ॥

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर ॥

तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय ।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥

गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागूं पाँय ।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो मिलाय ॥

सुख मे सुमिरन ना किया, दु:ख में करते याद ।
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥

साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥

कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ॥

माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥

रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥

दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय ॥

बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नही फल लागे अति दूर ॥

साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै थोथा देई उडाय॥

साँई इतना दीजिए जामें कुटुंब समाय ।
मैं भी भूखा ना रहूँ साधु न भुखा जाय॥

जो तोको काँटा बुवै ताहि बोव तू फूल।
तोहि फूल को फूल है वाको है तिरसुल॥

उठा बगुला प्रेम का तिनका चढ़ा अकास।
तिनका तिनके से मिला तिन का तिन के पास॥

सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाइ॥

साधू गाँठ न बाँधई उदर समाता लेय।
आगे पाछे हरी खड़े जब माँगे तब देय॥

प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ ले जाय।।

जब मैं था तब हरि‍ नहीं, अब हरि‍ हैं मैं नाहिं।
प्रेम गली अति सॉंकरी, तामें दो न समाहिं।।

जिन ढूँढा तिन पाइयॉं, गहरे पानी पैठ।
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।।

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा अपना, मुझ-सा बुरा न कोय।।

सॉंच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
जाके हिरदै सॉंच है, ताके हिरदै आप।।

बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि।
हिये तराजू तौल‍ के, तब मुख बाहर आनि।।

अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।

काल्‍ह करै सो आज कर, आज करै सो अब्‍ब।
पल में परलै होयगी, बहुरि करैगो कब्‍ब। .

निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय।
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।

दोस पराए देख‍ करि, चला हसंत हसंत।
अपने या न आवई, जिनका आदि न अंत।।

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ग्‍यान।
मोल करो तलवार के, पड़ा रहन दो म्‍यान।।

सोना, सज्‍जन, साधुजन, टूटि जुरै सौ बार।
दुर्जन कुंभ-कुम्‍हार के, एकै धका दरार।।

पाहन पुजे तो हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहाड़।
ताते या चाकी भली, पीस खाए संसार।।

कॉंकर पाथर जोरि कै, मस्जिद लई बनाय।
ता चढ़ मुल्‍ला बॉंग दे, बहिरा हुआ खुदाए।।

    मंगलवार, 2 मार्च 2010

    कबीर के दोहे

    कबीर के   दोहे
    गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागूं पाँय ।
    बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो मिलाय ॥

    यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान |
    शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान ||

    सब धरती काजग करू, लेखनी सब वनराज |
    सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाए ||

    ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोये |
    औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए ||

    बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर |
    पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर ||

    निंदक नियेरे राखिये, आँगन कुटी छावायें |
    बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुहाए ||

    बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय |
    जो मन देखा आपना, मुझ से बुरा न कोय ||

    दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय |
    जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय ||

    माटी कहे कुमार से, तू क्या रोंदे मोहे |
    एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदुंगी तोहे ||

    पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात |
    देखत ही छुप जाएगा है, ज्यों तारा  परभात ||

    चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोये |
    दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए ||

    मलिन आवत देख के, कलियन कहे पुकार |
    फूले फूले चुन लिए, कलि हमारी बार ||

    काल करे सो आज कर, आज करे सो अब |
    पल में परलय होएगी, बहुरि करेगा कब ||

    ज्यों तिल माहि तेल है, ज्यों चकमक में आग |
    तेरा साईं तुझ ही में है, जाग सके तो जाग ||

    जहाँ दया तहा धर्म है, जहाँ लोभ वहां पाप |
    जहाँ क्रोध तहा काल है, जहाँ क्षमा वहां आप ||

    जो घट प्रेम न संचारे, जो घट जान सामान |
    जैसे खाल लुहार की, सांस लेत बिनु प्राण ||

    जल में बसे कमोदनी, चंदा बसे आकाश |
    जो है जा को भावना सो ताहि के पास ||

    जाती न पूछो साधू की, पूछ लीजिये ज्ञान |
    मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान ||

    जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होए |
    यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोए ||

    ते दिन गए अकारथ ही, संगत भई न संग |
    प्रेम बिना पशु जीवन, भक्ति बिना भगवंत ||

    तीरथ गए से एक फल, संत मिले फल चार |
    सतगुरु मिले अनेक फल, कहे कबीर विचार ||

    तन को जोगी सब करे, मन को विरला कोय |
    सहजे सब विधि पाइए, जो मन जोगी होए ||

    प्रेम न बारी उपजे, प्रेम न हाट बिकाए |
    राजा प्रजा जो ही रुचे, सिस दे ही ले जाए ||

    जिन घर साधू न पुजिये, घर की सेवा नाही |
    ते घर मरघट जानिए, भुत बसे तिन माही ||

    साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।
    सार-सार को गहि रहै थोथा देई उडाय॥

    पाछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत |
    अब पछताए होत क्या, चिडिया चुग गई खेत ||

    उजल कपडा पहन करी, पान सुपारी खाई |
    ऐसे हरी का नाम बिन, बांधे जम कुटी नाही ||

    जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही |
    सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही ||

    नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए |
    मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाए ||

    प्रेम पियाला जो पिए, सिस दक्षिणा देय |
    लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ||

    प्रेम भावः एक चाहिए, भेष अनेक बनाये |
    चाहे घर में बास कर, चाहे बन को जाए ||

    फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम |
    कहे कबीर सेवक नहीं, चाहे चौगुना दाम ||

    माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
    कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर ॥

    माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय |
    भागत के पीछे लगे, सन्मुख आगे सोय ||

    मन दिना कछु और ही, तन साधून के संग |
    कहे कबीर कारी दरी, कैसे लागे रंग ||

    काया मंजन क्या करे, कपडे धोई न धोई |
    उजल हुआ न छूटिये, सुख नी सोई न सोई ||

    कागद केरो नाव दी, पानी केरो रंग |
    कहे कबीर कैसे फिरू, पञ्च कुसंगी संग ||

    कबीरा सोई पीर है, जो जाने पर पीर |
    जो पर पीर न जानही, सो का पीर में पीर ||

    जाता है तो जाण दे, तेरी दशा न जाई |
    केवटिया की नाव ज्यूँ, चडे मिलेंगे आई ||

    कुल केरा कुल कूबरे, कुल राख्या कुल जाए |
    राम नी कुल, कुल भेंट ले, सब कुल रहा समाई ||

    कबीरा हरी के रूठ ते, गुरु के शरणे जाए |
    कहत कबीर गुरु के रूठ ते, हरी न होत सहाय ||

    कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और ।
    हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ॥

    कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी |
    एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी ||

    कबीर खडा बाजार में, सबकी मांगे खैर |
    ना काहूँ से दोस्ती, ना काहूँ से बैर ||

    नहीं शीतल है चंद्रमा, हिम नहीं शीतल होय |
    कबीर शीतल संत जन, नाम सनेही होय ||

    पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय |
    ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ||

    राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय |
    जो सुख साधू संग में, सो बैकुंठ न होय ||

    शीलवंत सबसे बड़ा सब रतनन की खान |
    तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ||

    साईं इतना दीजिये, जामे कुटुंब समाये |
    मैं भी भूखा न रहूँ, साधू न भूखा जाए ||

    माखी गुड में गडी रहे, पंख रहे लिपटाए |
    हाथ मेल और सर धुनें, लालच बुरी बलाय ||

    सुमिरन मन में लाइए, जैसे नाद कुरंग |
    कहे कबीरा बिसर नहीं, प्राण तजे ते ही संग ||

    सुमिरन सूरत लगाईं के, मुख से कछु न बोल |
    बाहर का पट बंद कर, अन्दर का पट खोल ||

    साहिब तेरी साहिबी, सब घट रही समाय |
    ज्यों मेहंदी के पात में, लाली रखी न जाए ||

    संत पुरुष की आरती, संतो की ही देय |
    लखा जो चाहे अलख को, उन्ही में लाख ले देय ||

    ज्ञान रतन का जतन कर, माटी का संसार |
    हाय कबीरा फिर गया, फीका है संसार ||

    हरी संगत शीतल भया, मिटी मोह की ताप |
    निश्वास सुख निधि रहा, आन के प्रकटा आप ||

    कबीर मन पंछी भय, वहे ते बाहर जाए |
    जो जैसी संगत करे, सो तैसा फल पाए ||

    कुटिल वचन सबसे बुरा, जा से होत न चार |
    साधू वचन जल रूप है, बरसे अमृत धार ||

    आये है तो जायेंगे, राजा रंक फ़कीर |
    इक सिंहासन चढी चले, इक बंधे जंजीर ||

    ऊँचे कुल का जनमिया, करनी ऊँची न होय |
    सुवर्ण कलश सुरा भरा, साधू निंदा होय ||

    रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
    हीरा जन्म अमोल सा, कोड़ी बदले जाय ॥

    कामी क्रोधी लालची, इनसे भक्ति न होय |
    भक्ति करे कोई सुरमा, जाती बरन कुल खोए ||

    कागा का को धन हरे, कोयल का को देय |
    मीठे वचन सुना के, जग अपना कर लेय ||

    लुट सके तो लुट ले, हरी नाम की लुट |
    अंत समय पछतायेगा, जब प्राण जायेगे छुट ||


    तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय ।
    कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥

    धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
    माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥

    माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
    आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥

    जो तोको काँटा बुवै ताहि बोव तू फूल।
    तोहि फूल को फूल है वाको है तिरसुल॥

    उठा बगुला प्रेम का, तिनका चढ़ा अकास।
    तिनका तिनके से मिला, तिन का तिन के पास॥

    साधू गाँठ न बाँधई उदर समाता लेय।
    आगे पाछे हरी खड़े जब माँगे तब देय॥

    धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होए,
    माली सींचे सौ घडे, ऋतू आये फल होए

    मांगन मरण सामान है, मत मांगो कोई भीख,
    मांगन से मरना भला, ये सतगुरु की सीख

    ज्यों नैनन में पुतली, त्यों मालिक घर माँहि.
    मूरख लोग न जानिए , बाहर ढूँढत जाहिं
    कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये,
    ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये 

    रहीम के दोहे

    रहीम के दोहे
    अब्दुर्रहीम खानखाना(रहीम) का जन्म लाहोर मे हुआ था। पिता बैराम खाँ सम्राट
    अकबर के संरक्षक थे, जिन पर विद्रोह के आरोप लगाया गया और उन्हे हज करने मक्का भेज
    दिया गया था। पर मार्ग पर हि उनका शत्रु मुबारक अली ने उनकी हत्या कर दी। अकबर
    नें रहीम की शिक्षाका समुचित प्रबंध किया और वे चार साल की अवस्था से जीवन के अंतिम
    समय तक मुगल दरबार में रहे। उनके गुणों से प्रभावित होकर अकबर ने उन्हें 'मिरजा खां'
    की उपाधि दी थी। वे अकबर के प्रधान सेनापति, मंत्री और उसकी सभा के नवरत्न भी रहे।
    १६२7 में उनका देहांत हुआ था।

    अरबी, फारसी तथा संस्कृत का उन्हें अच्छा ज्ञान था। रहीम बड़े भावुक कवि और उत्कृष्ट
    विद्वान थे। उनका भाषा ब्रज और अबघी है। इन्होंने नीति, भक्ति, वैराग्य, ज्ञान और जीवन
    के गहन और व्यावहारिक विषयों पर दोहे लिखे, जो आज भी प्रासंगिक है।


    || 1 ||
    एकै साधे सब सधैं, सब साधे सब जाय  ।
    रहिमन मूलहि सींचिबो, फूलै फलै अघाय ।।

    || 2 ||
    कह रहीम कैसे निभे, बेर केर का संग ।
    यै डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग ।।

    || 3 ||
    खीरा सिर ते काटिए, मलियत लौन लगाय ।
    रहिमन करुए मुखन को, चहियत इहै सजाय ।।

    || 4 ||
    छिमा बड़ेन को चाहिए, छोटन को उत्पात ।
    का रहीम हरि को घटयौ, जो भृगु मारी लात ।।

    || 5 ||
    जे गरीब सो हित करै, धनि रहीम वे लोग ।
    कहा सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताइ जोग ।।

    || 6 ||
    जे अंचल दीपक दुरयौ, हन्यौ सो ताही गात ।
    रहिमन असमय के परे, मित्र शत्रु हवै जात ।।

    || 7 ||
    जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय ।
    बारे उजियारे लगे, बढ़े अँधेरो होय ।।

    || 8 ||
    टूटे सुजन मनाइये, जो टुटे सौ बार ।
    रहिमन फिरि-फिरि पोइए, टुटे मुक्ताहार ।।

    || 9 ||
    रहिमन देख बड़ेन को, लघु न दीजै डारि ।
    जहाँ काम आवे सुई, कहा करै तरवारि ।।

    || 10 ||
    बड़े बड़ाई नहिं करैं, बड़े न बोलें बोल ।
    रहिमन हिरा कब कहै, लाख टका मेरो मोल ।।

    || 11 ||
    बसि कुसंग चाहत कुसल, यह रहीम जिय सोस ।
    महिमा घटि समुद्र की, रावन बसयौ परोस ।।

    || 12 ||
    तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान ।
    कहि रहीम परकाज हित, संपति सँचहि सुजान ।।

    || 13 ||
    रहिमन याचकता गहे, बड़े छोट हवै जात ।
    नारायन हूँ को भयौ, बावन अँगुर गात ।।

    || 14 ||
    कह रहीम संपति सगे बनत बहुत बहु रीत ।
    बिपत-कसौटी जो कसे, तेई साँचे मीत ।।

    || 15 ||
    जो बड़ेन को लघु कहे, नहिं रहीम घटि जांहि ।
    गिरिधर मुरलीधर कहे, कुछ दुख मानत नांहि ।।

    || 16 ||
    धनि रहीम जल पंक को, लघु जिय पियत अघाय ।
    उदधि बड़ाई कौन है, जगत पियासो जाय ।।

    || 17 ||
    तैं रहीम मन आपुनो, कीन्हो चारु चकोर ।
    निसि बासर लाग्यौ रहे, कृष्णचंद्र की ओर ।।

    || 18 ||
    रहिमन यहि संसार में, सब सो मिलिए धाइ ।
    ना जाने केहि रूप में, नारायण मिलि जाइ ।।

    || 19 ||
    दुरदिन परे रहीम कहि, दुरथल जैयत भागि ।
    ठाढ़े हूजत घूर पर, जब घर लागति आगि ।।

    || 20 ||
    अब रहीम मुसकिल परी, गाढ़े दोऊ काम ।
    साँचे ते तो जग नहीं, झूठे मिलैं न राम ।।

    गुरु नानकदेव के पद

    गुरु नानकदेव के पद
    झूठी देखी प्रीत
    जगत में झूठी देखी प्रीत।
    अपने ही सुखसों सब लागे, क्या दारा क्या मीत॥
    मेरो मेरो सभी कहत हैं, हित सों बाध्यौ चीत।
    अंतकाल संगी नहिं कोऊ, यह अचरज की रीत॥
    मन मूरख अजहूँ नहिं समुझत, सिख दै हारयो नीत।
    नानक भव-जल-पार परै जो गावै प्रभु के गीत॥
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    को काहू को भाई

    हरि बिनु तेरो को न सहाई।
    काकी मात-पिता सुत बनिता, को काहू को भाई॥
    धनु धरनी अरु संपति सगरी जो मानिओ अपनाई।
    तन छूटै कुछ संग न चालै, कहा ताहि लपटाई॥
    दीन दयाल सदा दु:ख-भंजन, ता सिउ रुचि न बढाई।
    नानक कहत जगत सभ मिथिआ, ज्यों सुपना रैनाई॥

    मीरा के पद

    मीरा के पद

    दरद न जाण्यां कोय
    हेरी म्हां दरदे दिवाणी म्हारां दरद न जाण्यां कोय।
    घायल री गत घाइल जाण्यां, हिवडो अगण संजोय।
    जौहर की गत जौहरी जाणै, क्या जाण्यां जिण खोय।
    दरद की मार्यां दर दर डोल्यां बैद मिल्या नहिं कोय।
    मीरा री प्रभु पीर मिटांगां जब बैद सांवरो होय॥
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    अब तो हरि नाम लौ लागी

    सब जग को यह माखनचोर, नाम धर्यो बैरागी।
    कहं छोडी वह मोहन मुरली, कहं छोडि सब गोपी।
    मूंड मुंडाई डोरी कहं बांधी, माथे मोहन टोपी।
    मातु जसुमति माखन कारन, बांध्यो जाको पांव।
    स्याम किशोर भये नव गोरा, चैतन्य तांको नांव।
    पीताम्बर को भाव दिखावै, कटि कोपीन कसै।
    दास भक्त की दासी मीरा, रसना कृष्ण रटे॥
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    राम रतन धन पायो

    पायो जी म्हे तो रामरतन धन पायो।
    बस्तु अमोलक दी म्हारे सतगुरु, किरपा को अपणायो।
    जनम जनम की पूँजी पाई, जग में सभी खोवायो।
    खरचै नहिं कोई चोर न लेवै, दिन-दिन बढत सवायो।
    सत की नाव खेवहिया सतगुरु, भवसागर तर आयो।
    मीरा के प्रभु गिरधरनागर, हरख-हरख जस पायो॥
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    हरि बिन कछू न सुहावै

    परम सनेही राम की नीति ओलूंरी आवै।
    राम म्हारे हम हैं राम के, हरि बिन कछू न सुहावै।
    आवण कह गए अजहुं न आये, जिवडा अति उकलावै।
    तुम दरसण की आस रमैया, कब हरि दरस दिलावै।
    चरण कंवल की लगनि लगी नित, बिन दरसण दुख पावै।
    मीरा कूं प्रभु दरसण दीज्यौ, आंणद बरण्यूं न जावै॥
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    झूठी जगमग जोति

    आवो सहेल्या रली करां हे, पर घर गावण निवारि।
    झूठा माणिक मोतिया री, झूठी जगमग जोति।
    झूठा सब आभूषण री, सांचि पियाजी री पोति।
    झूठा पाट पटंबरारे, झूठा दिखणी चीर।
    सांची पियाजी री गूदडी, जामे निरमल रहे सरीर।
    छप्प भोग बुहाई दे है, इन भोगिन में दाग।
    लूण अलूणो ही भलो है, अपणो पियाजी को साग।
    देखि बिराणै निवांण कूं हे, क्यूं उपजावै खीज।
    कालर अपणो ही भलो है, जामें निपजै चीज।
    छैल बिराणे लाख को हे अपणे काज न होइ।
    ताके संग सीधारतां हे, भला न कहसी कोइ।
    वर हीणों आपणों भलो हे, कोढी कुष्टि कोइ।
    जाके संग सीधारतां है, भला कहै सब लोइ।
    अबिनासी सूं बालवां हे, जिपसूं सांची प्रीत।
    मीरा कूं प्रभु मिल्या हे, ऐहि भगति की रीत॥
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    अब तो मेरा राम

    अब तो मेरा राम नाम दूसरा न कोई॥
    माता छोडी पिता छोडे छोडे सगा भाई।
    साधु संग बैठ बैठ लोक लाज खोई॥
    सतं देख दौड आई, जगत देख रोई।
    प्रेम आंसु डार डार, अमर बेल बोई॥
    मारग में तारग मिले, संत राम दोई।
    संत सदा शीश राखूं, राम हृदय होई॥
    अंत में से तंत काढयो, पीछे रही सोई।
    राणे भेज्या विष का प्याला, पीवत मस्त होई॥
    अब तो बात फैल गई, जानै सब कोई।
    दास मीरा लाल गिरधर, होनी हो सो होई॥
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    म्हारे तो गिरधर गोपाल
    म्हारे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई॥
    जाके सिर मोर मुगट मेरो पति सोई।
    तात मात भ्रात बंधु आपनो न कोई॥
    छाँडि दई कुद्दकि कानि कहा करिहै कोई॥
    संतन ढिग बैठि बैठि लोकलाज खोई॥
    चुनरीके किये टूक ओढ लीन्हीं लोई।
    मोती मूँगे उतार बनमाला पोई॥
    अंसुवन जू सींचि सींचि प्रेम बेलि बोई।
    अब तो बेल फैल गई आणँद फल होई॥
    भगति देखि राजी हुई जगत देखि रोई।
    दासी मीरा लाल गिरधर तारो अब मोही॥

    भारतेंदु की कविता

    निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
    बिनु निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
    अँग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन।
    पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।।
    निज भाषा उन्नति बिना, कबहुँ न ह्लै है सोय।
    लाख उपाय अनेक यों, भले करे किन कोय।।
    इक भाषा इक जीव इक, मति सब घर के लोग।
    तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग।।
    और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात।
    निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात।।
    तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय।
    यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं होय
    भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात।
    विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात।।
    सब मिल तासों छाँड़ि कै, दूजे और उपाय।
    उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय।।

    नीरज के गीत

    अब तो मजहब कोई, ऐसा भी चलाया जाए
    जिसमें इनसान को, इनसान बनाया जाए
    आग बहती है यहाँ, गंगा में, झेलम में भी
    कोई बतलाए, कहाँ जाकर नहाया जाए
    मेरा मकसद है के महफिल रहे रोशन यूँही
    खून चाहे मेरा, दीपों में जलाया जाए
    मेरे दुख-दर्द का, तुझपर हो असर कुछ ऐसा
    मैं रहूँ भूखा तो तुझसे भी ना खाया जाए
    जिस्म दो होके भी, दिल एक हो अपने ऐसे
    मेरा आँसू, तेरी पलकों से उठाया जाए
    गीत गुमसुम है, ग़ज़ल चुप है, रूबाई है दुखी
    ऐसे माहौल में,‘नीरज’ को बुलाया जाए

    अब न वो दर्द, न वो दिल, न वो दीवाने हैं
    अब न वो साज, न वो सोज, न वो गाने हैं
    साकी! अब भी यहां तू किसके लिए बैठा है
    अब न वो जाम, न वो मय, न वो पैमाने हैं

    अटल बिहारी वाजपेयी

    जो कल थे,
    वे आज नहीं हैं।
    जो आज हैं,
    वे कल नहीं होंगे।
    होने, न होने का क्रम,
    इसी तरह चलता रहेगा,
    हम हैं, हम रहेंगे,
    यह भ्रम भी सदा पलता रहेगा।
    सत्य क्या है?
    होना या न होना?
    या दोनों ही सत्य हैं?
    जो है, उसका होना सत्य है,
    जो नहीं है, उसका न होना सत्य है।
    मुझे लगता है कि
    होना-न-होना एक ही सत्य के
    दो आयाम हैं,
    शेष सब समझ का फेर,
    बुद्धि के व्यायाम हैं।
    किन्तु न होने के बाद क्या होता है,
    यह प्रश्न अनुत्तरित है।
    प्रत्येक नया नचिकेता,
    इस प्रश्न की खोज में लगा है।
    सभी साधकों को इस प्रश्न ने ठगा है।
    शायद यह प्रश्न, प्रश्न ही रहेगा।
    यदि कुछ प्रश्न अनुत्तरित रहें
    तो इसमें बुराई क्या है?
    हाँ, खोज का सिलसिला न रुके,
    धर्म की अनुभूति,
    विज्ञान का अनुसंधान,
    एक दिन, अवश्य ही
    रुद्ध द्वार खोलेगा।
    प्रश्न पूछने के बजाय
    यक्ष स्वयं उत्तर बोलेगा।

    डॉ. सुरेश अवस्थी

    जीभों पर कांटे उगे, मन में उगे बबूल।
    रिश्ते कोई प्यार के, कैसे करे कबूल॥
    चादर से बाहर हुए, नई सदी के पांव।
    भाई-भाई में चले, ‘शकुनी’ वाले दांव॥
    बड़के को नथनी मिली, छुटके को जंजीर।
    बिटिया के हाथों लगी, अम्मा की तस्वीर॥
    मान-पान सम्मान सब, चाह रहे है आप।
    ये सब पाना था बना, क्यों बेटी का बाप॥
    सांई इस संसार में, ऐसे मिले फकीर।
    भीतर से ‘लादेन’ है, बाहर दिखे कबीर॥
    धूप सयानी हो गयी, बौनी होती छांव।
    रिंग रोड पर सोचते, कहां खो गया गांव॥
    काबिज है गोदाम पर, मिस्टर सत्यानाश।
    ‘सवासेर गेहूँ’ नहीं, प्रेम चन्द्र के पास॥

    मैथिलीशरण गुप्त

      मस्तक ऊँचा हुआ मही का, धन्य हिमालय का उत्कर्ष। हरि का क्रीड़ा-क्षेत्र हमारा, भूमि-भाग्य-सा भारतवर्ष॥ हरा-भरा यह देश बना कर विधि ने रवि का ...