मंगलवार, 2 मार्च 2010

डॉ. सुरेश अवस्थी

जीभों पर कांटे उगे, मन में उगे बबूल।
रिश्ते कोई प्यार के, कैसे करे कबूल॥
चादर से बाहर हुए, नई सदी के पांव।
भाई-भाई में चले, ‘शकुनी’ वाले दांव॥
बड़के को नथनी मिली, छुटके को जंजीर।
बिटिया के हाथों लगी, अम्मा की तस्वीर॥
मान-पान सम्मान सब, चाह रहे है आप।
ये सब पाना था बना, क्यों बेटी का बाप॥
सांई इस संसार में, ऐसे मिले फकीर।
भीतर से ‘लादेन’ है, बाहर दिखे कबीर॥
धूप सयानी हो गयी, बौनी होती छांव।
रिंग रोड पर सोचते, कहां खो गया गांव॥
काबिज है गोदाम पर, मिस्टर सत्यानाश।
‘सवासेर गेहूँ’ नहीं, प्रेम चन्द्र के पास॥

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