रविवार, 17 अप्रैल 2022

मैथिलीशरण गुप्त

 मस्तक ऊँचा हुआ मही का, धन्य हिमालय का उत्कर्ष।

हरि का क्रीड़ा-क्षेत्र हमारा, भूमि-भाग्य-सा भारतवर्ष॥


हरा-भरा यह देश बना कर विधि ने रवि का मुकुट दिया,

पाकर प्रथम प्रकाश जगत ने इसका ही अनुसरण किया।

प्रभु ने स्वयं 'पुण्य-भू' कह कर यहाँ पूर्ण अवतार लिया,

देवों ने रज सिर पर रक्खी, दैत्यों का हिल गया हिया!

लेखा श्रेष्ट इसे शिष्टों ने, दुष्टों ने देखा दुर्द्धर्ष!

हरि का क्रीड़ा-क्षेत्र हमारा, भूमि-भाग्य-सा भारतवर्ष॥


अंकित-सी आदर्श मूर्ति है सरयू के तट में अब भी,

गूँज रही है मोहन मुरली ब्रज-वंशीवट में अब भी।

लिखा बुद्धृ-निर्वाण-मन्त्र जयपाणि-केतुपट में अब भी,

महावीर की दया प्रकट है माता के घट में अब भी।

मिली स्वर्ण लंका मिट्टी में, यदि हमको आ गया अमर्ष।

हरि का क्रीड़ा-क्षेत्र हमारा, भूमि-भाग्य-सा भारतवर्ष॥


आर्य, अमृत सन्तान, सत्य का रखते हैं हम पक्ष यहाँ,

दोनों लोक बनाने वाले कहलाते है, दक्ष यहाँ।

शान्ति पूर्ण शुचि तपोवनों में हुए तत्व प्रत्यक्ष यहाँ,

लक्ष बन्धनों में भी अपना रहा मुक्ति ही लक्ष यहाँ।

जीवन और मरण का जग ने देखा यहीं सफल संघर्ष।

हरि का क्रीड़ा-क्षेत्र हमारा, भूमि-भाग्य-सा भारतवर्ष॥


मलय पवन सेवन करके हम नन्दनवन बिसराते हैं,

हव्य भोग के लिए यहाँ पर अमर लोग भी आते हैं!

मरते समय हमें गंगाजल देना, याद दिलाते हैं,

वहाँ मिले न मिले फिर ऐसा अमृत जहाँ हम जाते हैं!

कर्म हेतु इस धर्म भूमि पर लें फिर फिर हम जन्म सहर्ष

हरि का क्रीड़ा-क्षेत्र हमारा, भूमि-भाग्य-सा भारतवर्ष॥


मैथिलीशरण गुप्त

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मैथिलीशरण गुप्त

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