बुधवार, 19 मई 2010

रामचरितमानस की सूक्तियाँ

रामचरितमानस की सूक्तियाँ
 
रामचरित मानस एहिनामा
   सुनत श्रवन पाइअ विश्रामा॥
शोधकर्ताओं के लिए रामचरितमानस एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें अनेक रत्न भरे पडे हैं तथा इसका अध्ययन-मंथन सदा नूतन लगता है। जितनी बार इसे पढा़ जाय, उतनी ही बार नई-नई रहस्यपूर्ण बातों का ज्ञान होता है। अनेक विद्वानों एवं साहित्यकारों ने इस महान ग्रंथ को अपने शोध का विषय बनाकर पीएच.डी. एवं डी.लिट. की उपाधियां प्राप्त की हैं, कर रहे हैं तथा करते रहेंगे।
रामचरितमानस के हर पद में महाकवि तुलसीदास के चिंतन, विचारों, अनुभवों के अमृतकण सूक्तियों के रूप में बिखरे हैं। विभिन्न भावों से सम्बन्धित कुछ महत्वपूर्ण सूक्तियां नीचे प्रस्तुत हैं--
जो जग काम नचावन जेही..
   जगत में ऐसा कौन है, जिसे काम ने नचाया न हो [उत्तरकांड]
खल सन कलह न भल नहिं प्रीति
   खल के साथ न कलह अच्छा न प्रेम अच्छा [उत्तरकांड]
केहिं कर हृदय क्रोध नहिं दाहा
   क्रोध ने किसका हृदय नहीं जलाया [उत्तरकांड]
चिंता सांपिनि को नहिं खाया
   चिंता रूपी सांपिन ने किसे नहीं डंसा [उत्तरकांड]
तप ते अगम न कछु संसारा
   संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं जो तप से न मिल सके [बालकांड]
तृष्णा केहि न कीन्ह बीराहा
   तृष्णा ने किसको बावला नहीं किया [उत्तरकांड]
नवनि नीच के अति दुःखदाई,
   जिमि अंकुस धनु उरग विलाई
   नीच का झुकना भी अत्यन्त दुखदायी होता है, जैसे -अंकुश, धनुष, सांप और बिल्ली का झुकना .[उत्तरकांड]
परहित सरस धरम नहिं भाई
   परोपकार के समान दूसरा धर्म नहीं है [उत्तरकांड]
पर पीडा़ सम नहिं अधमाई
   दूसरों को पीडित करने जैसा कोई पाप नहीं है [उत्तरकांड]
दुचित कतहुं परितोष न लहहीं
   चित्त के दोतरफा हो जाने से कहीं परितोष नहीं मिलता [अयोध्या कांड]
तसि पूजा चाहिअ जस देवा
   जैसा देवता हो, वैसी उसकी पूजा होनी चाहिए [अयोध्याकांड]
नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं
   प्रभुता पाई जाहि मद नाहीं
   संसार में ऐसा कोई नहीं है जिसको प्रभुता पाकर घमंड न हुआ हो [बालकांड]
प्रीति विरोध समान सन
   करिअ नीति असि आहि
   प्रीति और बैर बराबरी में करना चाहिए [लंकाकांड]
मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला
   सभी मानस रोगों की जड़ मोह / अज्ञान है [उत्तरकांड]
कीरति भनिति भूति भलि सोई
   सुरसरि सम सब कहं हित होई
   कीर्ति, कविता और सम्पत्ति वही उत्तम है, जो गंगाजी की भांति सबका हित करती है [बालकांड]
सचिव बैद गुरु तीनि जौं ,
   प्रिय बोलहिं भय आस
   राज, धर्म,तन तीनि कर,
   होई बेगहिं नास
   मंत्री, बैद्य और गुरु ये तीन यदि अप्रसन्नता के भय या लाभ की आशा से ठकुरसुहाती कहते हैं तो राज्य, शरीर और धर्म इन तीनों का शीथ्र ही नाश हो जाता है [सुन्दरकांड]
लोकमान्यता अनल सम, कर तपकानन दाहु
   लोक में प्रतिष्ठा आग के समान है जो तपस्या रूपी बन को भस्म कर डालती है [बालकांड]

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मैथिलीशरण गुप्त

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