रहीम के दोहे
अब्दुर्रहीम खानखाना(रहीम) का जन्म लाहोर मे हुआ था। पिता बैराम खाँ सम्राट
अकबर के संरक्षक थे, जिन पर विद्रोह के आरोप लगाया गया और उन्हे हज करने मक्का भेज
दिया गया था। पर मार्ग पर हि उनका शत्रु मुबारक अली ने उनकी हत्या कर दी। अकबर
नें रहीम की शिक्षाका समुचित प्रबंध किया और वे चार साल की अवस्था से जीवन के अंतिम
समय तक मुगल दरबार में रहे। उनके गुणों से प्रभावित होकर अकबर ने उन्हें 'मिरजा खां'
की उपाधि दी थी। वे अकबर के प्रधान सेनापति, मंत्री और उसकी सभा के नवरत्न भी रहे।
१६२7 में उनका देहांत हुआ था।
अरबी, फारसी तथा संस्कृत का उन्हें अच्छा ज्ञान था। रहीम बड़े भावुक कवि और उत्कृष्ट
विद्वान थे। उनका भाषा ब्रज और अबघी है। इन्होंने नीति, भक्ति, वैराग्य, ज्ञान और जीवन
के गहन और व्यावहारिक विषयों पर दोहे लिखे, जो आज भी प्रासंगिक है।
|| 1 ||
एकै साधे सब सधैं, सब साधे सब जाय ।
रहिमन मूलहि सींचिबो, फूलै फलै अघाय ।।
|| 2 ||
कह रहीम कैसे निभे, बेर केर का संग ।
यै डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग ।।
|| 3 ||
खीरा सिर ते काटिए, मलियत लौन लगाय ।
रहिमन करुए मुखन को, चहियत इहै सजाय ।।
|| 4 ||
छिमा बड़ेन को चाहिए, छोटन को उत्पात ।
का रहीम हरि को घटयौ, जो भृगु मारी लात ।।
|| 5 ||
जे गरीब सो हित करै, धनि रहीम वे लोग ।
कहा सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताइ जोग ।।
|| 6 ||
जे अंचल दीपक दुरयौ, हन्यौ सो ताही गात ।
रहिमन असमय के परे, मित्र शत्रु हवै जात ।।
|| 7 ||
जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय ।
बारे उजियारे लगे, बढ़े अँधेरो होय ।।
|| 8 ||
टूटे सुजन मनाइये, जो टुटे सौ बार ।
रहिमन फिरि-फिरि पोइए, टुटे मुक्ताहार ।।
|| 9 ||
रहिमन देख बड़ेन को, लघु न दीजै डारि ।
जहाँ काम आवे सुई, कहा करै तरवारि ।।
|| 10 ||
बड़े बड़ाई नहिं करैं, बड़े न बोलें बोल ।
रहिमन हिरा कब कहै, लाख टका मेरो मोल ।।
|| 11 ||
बसि कुसंग चाहत कुसल, यह रहीम जिय सोस ।
महिमा घटि समुद्र की, रावन बसयौ परोस ।।
|| 12 ||
तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान ।
कहि रहीम परकाज हित, संपति सँचहि सुजान ।।
|| 13 ||
रहिमन याचकता गहे, बड़े छोट हवै जात ।
नारायन हूँ को भयौ, बावन अँगुर गात ।।
|| 14 ||
कह रहीम संपति सगे बनत बहुत बहु रीत ।
बिपत-कसौटी जो कसे, तेई साँचे मीत ।।
|| 15 ||
जो बड़ेन को लघु कहे, नहिं रहीम घटि जांहि ।
गिरिधर मुरलीधर कहे, कुछ दुख मानत नांहि ।।
|| 16 ||
धनि रहीम जल पंक को, लघु जिय पियत अघाय ।
उदधि बड़ाई कौन है, जगत पियासो जाय ।।
|| 17 ||
तैं रहीम मन आपुनो, कीन्हो चारु चकोर ।
निसि बासर लाग्यौ रहे, कृष्णचंद्र की ओर ।।
|| 18 ||
रहिमन यहि संसार में, सब सो मिलिए धाइ ।
ना जाने केहि रूप में, नारायण मिलि जाइ ।।
|| 19 ||
दुरदिन परे रहीम कहि, दुरथल जैयत भागि ।
ठाढ़े हूजत घूर पर, जब घर लागति आगि ।।
|| 20 ||
अब रहीम मुसकिल परी, गाढ़े दोऊ काम ।
साँचे ते तो जग नहीं, झूठे मिलैं न राम ।।
अब्दुर्रहीम खानखाना(रहीम) का जन्म लाहोर मे हुआ था। पिता बैराम खाँ सम्राट
अकबर के संरक्षक थे, जिन पर विद्रोह के आरोप लगाया गया और उन्हे हज करने मक्का भेज
दिया गया था। पर मार्ग पर हि उनका शत्रु मुबारक अली ने उनकी हत्या कर दी। अकबर
नें रहीम की शिक्षाका समुचित प्रबंध किया और वे चार साल की अवस्था से जीवन के अंतिम
समय तक मुगल दरबार में रहे। उनके गुणों से प्रभावित होकर अकबर ने उन्हें 'मिरजा खां'
की उपाधि दी थी। वे अकबर के प्रधान सेनापति, मंत्री और उसकी सभा के नवरत्न भी रहे।
१६२7 में उनका देहांत हुआ था।
अरबी, फारसी तथा संस्कृत का उन्हें अच्छा ज्ञान था। रहीम बड़े भावुक कवि और उत्कृष्ट
विद्वान थे। उनका भाषा ब्रज और अबघी है। इन्होंने नीति, भक्ति, वैराग्य, ज्ञान और जीवन
के गहन और व्यावहारिक विषयों पर दोहे लिखे, जो आज भी प्रासंगिक है।
|| 1 ||
एकै साधे सब सधैं, सब साधे सब जाय ।
रहिमन मूलहि सींचिबो, फूलै फलै अघाय ।।
|| 2 ||
कह रहीम कैसे निभे, बेर केर का संग ।
यै डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग ।।
|| 3 ||
खीरा सिर ते काटिए, मलियत लौन लगाय ।
रहिमन करुए मुखन को, चहियत इहै सजाय ।।
|| 4 ||
छिमा बड़ेन को चाहिए, छोटन को उत्पात ।
का रहीम हरि को घटयौ, जो भृगु मारी लात ।।
|| 5 ||
जे गरीब सो हित करै, धनि रहीम वे लोग ।
कहा सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताइ जोग ।।
|| 6 ||
जे अंचल दीपक दुरयौ, हन्यौ सो ताही गात ।
रहिमन असमय के परे, मित्र शत्रु हवै जात ।।
|| 7 ||
जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय ।
बारे उजियारे लगे, बढ़े अँधेरो होय ।।
|| 8 ||
टूटे सुजन मनाइये, जो टुटे सौ बार ।
रहिमन फिरि-फिरि पोइए, टुटे मुक्ताहार ।।
|| 9 ||
रहिमन देख बड़ेन को, लघु न दीजै डारि ।
जहाँ काम आवे सुई, कहा करै तरवारि ।।
|| 10 ||
बड़े बड़ाई नहिं करैं, बड़े न बोलें बोल ।
रहिमन हिरा कब कहै, लाख टका मेरो मोल ।।
|| 11 ||
बसि कुसंग चाहत कुसल, यह रहीम जिय सोस ।
महिमा घटि समुद्र की, रावन बसयौ परोस ।।
|| 12 ||
तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान ।
कहि रहीम परकाज हित, संपति सँचहि सुजान ।।
|| 13 ||
रहिमन याचकता गहे, बड़े छोट हवै जात ।
नारायन हूँ को भयौ, बावन अँगुर गात ।।
|| 14 ||
कह रहीम संपति सगे बनत बहुत बहु रीत ।
बिपत-कसौटी जो कसे, तेई साँचे मीत ।।
|| 15 ||
जो बड़ेन को लघु कहे, नहिं रहीम घटि जांहि ।
गिरिधर मुरलीधर कहे, कुछ दुख मानत नांहि ।।
|| 16 ||
धनि रहीम जल पंक को, लघु जिय पियत अघाय ।
उदधि बड़ाई कौन है, जगत पियासो जाय ।।
|| 17 ||
तैं रहीम मन आपुनो, कीन्हो चारु चकोर ।
निसि बासर लाग्यौ रहे, कृष्णचंद्र की ओर ।।
|| 18 ||
रहिमन यहि संसार में, सब सो मिलिए धाइ ।
ना जाने केहि रूप में, नारायण मिलि जाइ ।।
|| 19 ||
दुरदिन परे रहीम कहि, दुरथल जैयत भागि ।
ठाढ़े हूजत घूर पर, जब घर लागति आगि ।।
|| 20 ||
अब रहीम मुसकिल परी, गाढ़े दोऊ काम ।
साँचे ते तो जग नहीं, झूठे मिलैं न राम ।।
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