मंगलवार, 2 मार्च 2010

कबीर के दोहे

कबीर के   दोहे
गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागूं पाँय ।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो मिलाय ॥

यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान |
शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान ||

सब धरती काजग करू, लेखनी सब वनराज |
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाए ||

ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोये |
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए ||

बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर |
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर ||

निंदक नियेरे राखिये, आँगन कुटी छावायें |
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुहाए ||

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय |
जो मन देखा आपना, मुझ से बुरा न कोय ||

दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय |
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय ||

माटी कहे कुमार से, तू क्या रोंदे मोहे |
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदुंगी तोहे ||

पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात |
देखत ही छुप जाएगा है, ज्यों तारा  परभात ||

चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोये |
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए ||

मलिन आवत देख के, कलियन कहे पुकार |
फूले फूले चुन लिए, कलि हमारी बार ||

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब |
पल में परलय होएगी, बहुरि करेगा कब ||

ज्यों तिल माहि तेल है, ज्यों चकमक में आग |
तेरा साईं तुझ ही में है, जाग सके तो जाग ||

जहाँ दया तहा धर्म है, जहाँ लोभ वहां पाप |
जहाँ क्रोध तहा काल है, जहाँ क्षमा वहां आप ||

जो घट प्रेम न संचारे, जो घट जान सामान |
जैसे खाल लुहार की, सांस लेत बिनु प्राण ||

जल में बसे कमोदनी, चंदा बसे आकाश |
जो है जा को भावना सो ताहि के पास ||

जाती न पूछो साधू की, पूछ लीजिये ज्ञान |
मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान ||

जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होए |
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोए ||

ते दिन गए अकारथ ही, संगत भई न संग |
प्रेम बिना पशु जीवन, भक्ति बिना भगवंत ||

तीरथ गए से एक फल, संत मिले फल चार |
सतगुरु मिले अनेक फल, कहे कबीर विचार ||

तन को जोगी सब करे, मन को विरला कोय |
सहजे सब विधि पाइए, जो मन जोगी होए ||

प्रेम न बारी उपजे, प्रेम न हाट बिकाए |
राजा प्रजा जो ही रुचे, सिस दे ही ले जाए ||

जिन घर साधू न पुजिये, घर की सेवा नाही |
ते घर मरघट जानिए, भुत बसे तिन माही ||

साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै थोथा देई उडाय॥

पाछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत |
अब पछताए होत क्या, चिडिया चुग गई खेत ||

उजल कपडा पहन करी, पान सुपारी खाई |
ऐसे हरी का नाम बिन, बांधे जम कुटी नाही ||

जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही |
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही ||

नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए |
मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाए ||

प्रेम पियाला जो पिए, सिस दक्षिणा देय |
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ||

प्रेम भावः एक चाहिए, भेष अनेक बनाये |
चाहे घर में बास कर, चाहे बन को जाए ||

फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम |
कहे कबीर सेवक नहीं, चाहे चौगुना दाम ||

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर ॥

माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय |
भागत के पीछे लगे, सन्मुख आगे सोय ||

मन दिना कछु और ही, तन साधून के संग |
कहे कबीर कारी दरी, कैसे लागे रंग ||

काया मंजन क्या करे, कपडे धोई न धोई |
उजल हुआ न छूटिये, सुख नी सोई न सोई ||

कागद केरो नाव दी, पानी केरो रंग |
कहे कबीर कैसे फिरू, पञ्च कुसंगी संग ||

कबीरा सोई पीर है, जो जाने पर पीर |
जो पर पीर न जानही, सो का पीर में पीर ||

जाता है तो जाण दे, तेरी दशा न जाई |
केवटिया की नाव ज्यूँ, चडे मिलेंगे आई ||

कुल केरा कुल कूबरे, कुल राख्या कुल जाए |
राम नी कुल, कुल भेंट ले, सब कुल रहा समाई ||

कबीरा हरी के रूठ ते, गुरु के शरणे जाए |
कहत कबीर गुरु के रूठ ते, हरी न होत सहाय ||

कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ॥

कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी |
एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी ||

कबीर खडा बाजार में, सबकी मांगे खैर |
ना काहूँ से दोस्ती, ना काहूँ से बैर ||

नहीं शीतल है चंद्रमा, हिम नहीं शीतल होय |
कबीर शीतल संत जन, नाम सनेही होय ||

पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय |
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ||

राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय |
जो सुख साधू संग में, सो बैकुंठ न होय ||

शीलवंत सबसे बड़ा सब रतनन की खान |
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ||

साईं इतना दीजिये, जामे कुटुंब समाये |
मैं भी भूखा न रहूँ, साधू न भूखा जाए ||

माखी गुड में गडी रहे, पंख रहे लिपटाए |
हाथ मेल और सर धुनें, लालच बुरी बलाय ||

सुमिरन मन में लाइए, जैसे नाद कुरंग |
कहे कबीरा बिसर नहीं, प्राण तजे ते ही संग ||

सुमिरन सूरत लगाईं के, मुख से कछु न बोल |
बाहर का पट बंद कर, अन्दर का पट खोल ||

साहिब तेरी साहिबी, सब घट रही समाय |
ज्यों मेहंदी के पात में, लाली रखी न जाए ||

संत पुरुष की आरती, संतो की ही देय |
लखा जो चाहे अलख को, उन्ही में लाख ले देय ||

ज्ञान रतन का जतन कर, माटी का संसार |
हाय कबीरा फिर गया, फीका है संसार ||

हरी संगत शीतल भया, मिटी मोह की ताप |
निश्वास सुख निधि रहा, आन के प्रकटा आप ||

कबीर मन पंछी भय, वहे ते बाहर जाए |
जो जैसी संगत करे, सो तैसा फल पाए ||

कुटिल वचन सबसे बुरा, जा से होत न चार |
साधू वचन जल रूप है, बरसे अमृत धार ||

आये है तो जायेंगे, राजा रंक फ़कीर |
इक सिंहासन चढी चले, इक बंधे जंजीर ||

ऊँचे कुल का जनमिया, करनी ऊँची न होय |
सुवर्ण कलश सुरा भरा, साधू निंदा होय ||

रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अमोल सा, कोड़ी बदले जाय ॥

कामी क्रोधी लालची, इनसे भक्ति न होय |
भक्ति करे कोई सुरमा, जाती बरन कुल खोए ||

कागा का को धन हरे, कोयल का को देय |
मीठे वचन सुना के, जग अपना कर लेय ||

लुट सके तो लुट ले, हरी नाम की लुट |
अंत समय पछतायेगा, जब प्राण जायेगे छुट ||


तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय ।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥

माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥

जो तोको काँटा बुवै ताहि बोव तू फूल।
तोहि फूल को फूल है वाको है तिरसुल॥

उठा बगुला प्रेम का, तिनका चढ़ा अकास।
तिनका तिनके से मिला, तिन का तिन के पास॥

साधू गाँठ न बाँधई उदर समाता लेय।
आगे पाछे हरी खड़े जब माँगे तब देय॥

धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होए,
माली सींचे सौ घडे, ऋतू आये फल होए

मांगन मरण सामान है, मत मांगो कोई भीख,
मांगन से मरना भला, ये सतगुरु की सीख

ज्यों नैनन में पुतली, त्यों मालिक घर माँहि.
मूरख लोग न जानिए , बाहर ढूँढत जाहिं
कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये,
ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

मैथिलीशरण गुप्त

  मस्तक ऊँचा हुआ मही का, धन्य हिमालय का उत्कर्ष। हरि का क्रीड़ा-क्षेत्र हमारा, भूमि-भाग्य-सा भारतवर्ष॥ हरा-भरा यह देश बना कर विधि ने रवि का ...