बुधवार, 19 मई 2010

वाह्य सूत्र

101) स्वार्थ, अंहकार और लापरवाही की मात्रा बढ़ जाना ही किसी व्यक्ति के पतन का कारण होता है।
102) बुद्धिमान्‌ वह है, जो किसी को गलतियों से हानि होते देखकर अपनी गलतियाँ सुधार लेता है।
103) भूत लौटने वाला नहीं, भविष्य का कोई निश्चय नहीं; सँभालने और बनाने योग्य तो वर्तमान है।
104) लोग क्या कहते हैं-इस पर ध्यान मत दो। सिर्फ यह देखो कि जो करने योग्य था, वह बनपड़ा या नहीं?
105) जिनकी तुम प्रशंसा करते हो, उनके गुणों को अपनाओ और स्वयं भी प्रशंसा के योग्य बनो।
106) भगवान्‌ के काम में लग जाने वाले कभी घाटे में नहीं रह सकते।
107) दूसरों की निन्दा और त्रूटियाँ सुनने में अपना समय नष्ट मत करो।
108) दूसरों की निन्दा करके किसी को कुछ नहींं मिला, जिसने अपने को सुधारा उसने बहुत कुछ पाया।
109) सबसे बड़ा दीन-दुर्बल वह है, जिसका अपने ऊपर नियंत्रयण नहीं।
110) यदि मनुष्य कुछ सीखना चाहे, तो उसकी प्रत्येक भूल कुछ न कुछ सिखा देती है।
111) मानवता की सेवा से बढ़कर और कोई काम बडΠा नहीं हो सकता।
112) जिसने शिष्टता और नम्रता नहीं सीखी, उनका बहुत सीखना भी व्यर्थ रहा।
113) शुभ कार्यों के लिए हर दिन शुभ और अशुभ कार्यों के लिए हर दिना अशुभ है।
114) किसी सदुद्देश्य के लिए जीवन भर कठिनाइयों से जूझते रहना ही महापुरुष होना है।
115) अपनी प्रशंसा आप न करें, यह कार्य आपके सत्कर्म स्वयं करा लेंगे।
116) भगवान्‌ जिसे सच्चे मन से प्यार करते हैं, उसे अग्नि परीक्षाओं में होकर गुजारते हैं।
117) गुण, कर्म और स्वभाव का परिष्कार ही अपनी सच्ची सेवा है।
118) दूसरों के साथ वह व्यवहार न करो, जो तुम्हें अपने लिए पसन्द नहीं।
119) आज के काम कल पर मत टालिए।
120) आत्मा की पुकार अनसुनी न करें।
121) मनुष्य परिस्थितियों का गुलाम नहीं, अपने भाग्य का निर्माता और विधाता है।
122) आप समय को नष्ट करेंगे तो समय भी आपको नष्ट कर देगा।
123) समय की कद्र करो। एक मिनट भी फिजूल मत गँवाओं।
124) जीवन का हर क्षण उज्ज्वल भविष्य की संभावना लेकर आता है।
125) कत्र्तव्यों के विषय में आने वाले कल की कल्पना एक अंध-विश्वास है।
126) हँसती-हँसाती जिन्दगी ही सार्थक है।
127) पढ़ने का लाभ तभी है जब उसे व्यवहार में लाया जाए।
128) वत मत करो, जिसके लिए पीछे पछताना पड़े।
129) प्रकृति के अनुकूल चलें, स्वस्थ रहें।
130) स्वच्छता सभ्यता का प्रथम सोपान है।
131) भगवान्‌ भावना की उत्कृष्टता को ही प्यार करता है।
132) सत्प्रयत्न कभी निरर्थक नहीं होते।
133) गुण ही नारी का सच्चा आभूषण है।
134) नर और नारी एक ही आत्मा के दो रूप है।
135) नारी का असली श्रृंगार, सादा जीवन उच्च विचार।
136) बहुमूल्य वर्तमान का सदुपयोग कीजिए।
137) जो तुम दूसरे से चाहते हो, उसे पहले स्वयं करो।
138) जो हम सोचते हैं सो करते हैं और जो करते हैं सो भुगतते हैं।
139) सेवा में बड़ी शक्ति है। उससे भगवान्‌ भी वश में हो सकते हैं।
140) स्वाध्याय एक वैसी ही आत्मिक आवश्यकता है जैसे शरीर के लिए भोजन।
141) दूसरों के साथ सदैव नम्रता, मधुरता, सज्जनता, उदारता एवं सहृदयता का व्यवहार करें।
142) अपने कार्यों में व्यवस्था, नियमितता, सुन्दरता, मनोयोग तथा जिम्मेदार का ध्यान रखें।
143) धैर्य, अनुद्वेग, साहस, प्रसन्नता, दृढ़ता और समता की संतुलित स्थिति सदेव बनाये रखें।
144) स्वर्ग और नरक कोई स्थान नहीं, वरन्‌ दृष्टिकोण है।
145) आत्मबल ही इस संसार का सबसे बड़ा बल है।
146) सादगी सबसे बड़ा फैशन है।
147) हर मनुष्य का भाग्य उसकी मुट्ठी में है।
148) सन्मार्ग का राजपथ कभी भी न छोड़े।
149) आत्म-निरीक्षण इस संसार का सबसे कठिन, किन्तु करने योग्य कर्म है।
150) महानता के विकास में अहंकार सबसे घातक शत्रु है।
151) 'स्वाध्यान्मा प्रमद:' अर्थात्‌ स्वाध्याय में प्रमाद न करें।
152) श्रेष्ठता रहना देवत्व के समीप रहना है।
153) मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है।
154) परमात्मा की सच्ची पूजा सद्‌व्यवहार है।
155) आत्म-निर्माण का ही दूसरा नाम भाग्य निर्माण है।
156) आत्मा की उत्कृष्टता संसार की सबसे बड़ी सिद्धि है।
157) ज्ञान की आराधना से ही मनुष्य तुच्छ से महान्‌ बनता है।
158) उपासना सच्ची तभी है, जब जीवन में ईश्वर घुल जाए।
159) आत्मा का परिष्कृत रूप ही परमात्मा है।
160) सज्जनता और मधुर व्यवहार मनुष्यता की पहली शर्ता है।
161) दूसरों को पीड़ा न देना ही मानव धर्म है।
162) खुद साफ रहो, सुरक्षित रहो और औरों को भी रोगों से बचाओं।
163) 'स्वर्ग' शब्द में जिन गुणों का बोध होता है, सफाई और शुचिता उनमें सर्वप्रमुख है।
164) धरती पर स्वर्ग अवतरित करने का प्रारम्भ सफाई और स्वच्छता से करें।
165) गलती को ढँÚूढ़ना, मानना और सुधारना ही मनुष्य का बड़प्पन है।
166) जीवन एक पाठशाला है, जिसमें अनुभवों के आधार पर हम शिक्षा प्राप्त करते हैं।
167) प्रशंसा और प्रतिष्ठा वही सच्ची है, जो उत्कृष्ट कार्य करने के लिए प्राप्त हो।
168) दृष्टिकोण की श्रेष्ठता ही वस्तुत: मानव जीवन की श्रेष्ठता है।
169) जीवन एक परीक्षा है। उसे परीक्षा की कसौटी पर सर्वत्र कसा जाता है।
170) उत्कृष्टता का दृष्टिकोण ही जीवन को सुरक्षित एवं सुविकसित बनाने एकमात्र उपाय है।
171) खुशामद बड़े-बड़ों को ले डूृबती है।
172) आशावाद और ईश्वरवाद एक ही रहस्य के दो नाम हैं।
173) ईष्र्या न करें, प्रेरणा ग्रहण करें।
174) ईश्र्या आदमी को उसी तरह खा जाती है, जैसे कपड़े को कीड़ा।
175) स्वाधीन मन मनुष्य का सच्चा सहायक होता है।
176) अनासक्त जीवन ही शुद्ध और सच्चा जीवन है।
177) विचारों की पवित्रता स्वयं एक स्वास्थ्यवर्धक रसायन है।
178) सुखी होना है तो प्रसन्न रहिए, निश्चिन्त रहिए, मस्त रहिए।
179) ज्ञान की सार्थकता तभी है, जब वह आचरण में आए।
180) समय का सुदपयोग ही उन्नति का मूलमंत्र है।
181) एक सत्य का आधार ही व्यक्ति को भवसागर से पार कर देता है।
182) जाग्रत्‌ आत्मा का लक्षण है- सत्यम्‌, शिवम्‌ और सुन्दरम्‌ की ओर उन्मुखता।
183) परोपकार से बढ़कर और निरापद दूसरा कोई धर्म नहीं।
184) जीवन उसी का सार्थक है, जो सदा परोपकार में प्रवृत्त है।
185) बड़प्पन सादगी और शालीनता में है।
186) चरित्रनिष्ठ व्यक्ति ईश्वर के समान है।
187) मनुष्य उपाधियों से नहीं, श्रेष्ठ कार्यों से सज्जन बनता है।
188) धनवाद्‌ नहीं, चरित्रवान्‌ सुख पाते हैं।
189) बड़प्पन सुविधा संवर्धन में नहीं, सद्‌गुण संवर्धन का नाम है।
190) भाग्य पर नहीं, चरित्र पर निर्भर रहो।
191) वही उन्नति कर सकता है, जो स्वयं को उपदेश देता है।
192) भलमनसाहत का व्यवहार करने वाला एक चमकता हुआ हीरा है।
193) प्रसुप्त देवत्व का जागरण ही सबसे बड़ी ईश्वर पूजा है।
194) चरित्र ही मनुष्य की श्रेष्ठता का उत्तम मापदण्ड है।
195) आत्मा के संतोष का ही दूसरा नाम स्वर्ग है।
196) मनुष्य का अपने आपसे बढ़कर न कोई शत्रु है, न मित्र।
197) फूलों की तरह हँसते-मुस्कराते जीवन व्यतीत करो।
198) उत्तम ज्ञान और सद्‌विचार कभी भी नष्ट नहीं होते है।
199) अपना सुधार संसार की सबसे बड़ी सेवा है।
200) भाग्य को मनुष्य स्वयं बनाता है, ईश्वर नहीं

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मैथिलीशरण गुप्त

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